Corporate Yogi
| Dumpsite of my Intellectual Treasure |
Friday, October 12, 2012
Wednesday, April 25, 2012
Culture is One Thing and Varnish is Another.
[1].
Quoting Bapu to initiate the post, “A nation's culture resides in the hearts and in the soul of its people”.
Now let’s jump to question, what is the culture on modern India today? In the name of patriotism some sensitive Indians will start giving me BC era references of Indian culture – Religious tolerance, unity in diversity, spirituality or Yoga. But at present we are in self-doubt whether a pie of all these exists in modern Indian culture or not. One may say, with the rapid developments and globalization a culture is assumed to lose its essence. I dont buy it as I'm seeing China more prosperous then us and still having a culture not much degenerated. Our culture has been forced to commit suicide systematically. Today, when I check my background I’m very proud that I’ve been educated in RSS led Shishu Mandirs and have been raised in rural areas - where , once, real India used to live. After spending lot of life in Indian metros and rural India, I can find the deviation between real Indian culture and modern Indian culture. The real culture has been destroyed. All credit goes to us for blindly following of western culture, English to the first. Bhartiyata is in our genes. It can be polluted but can’t be destroyed. Despite of your millions false attempt you can’t be English, Chinese or American. So what’s this pretention for?
[2].
[2].
It’s a common site in any pub, disc of hanging point. People gossips and then asks innocently who was Abhimanyu or Vishwamitra or Sumitra. They pronounce it like a British, They fit characters wrongly, like, by saying , Sumitra is the wife of Arjun or any senseless fitting. They are doing it intentionally so that someone from the group can correct them. The whole drama is done intentionally. People can do Google to know everything about our culture but we are creating this drama, why? Just to show, “See, I don’t even know these little basic facts, I am a true follower of western culture. I’m modern. I’m from Youngistan, meri jaan. Ask them about Led Zeppelin and they will start humming rock numbers from the band whom I think 80% of India might not have heard ever. That’s the tragedy. We are destroying our culture. Initially, I thought it might be a silp or just an act of innocence but now I believe that this is all what new generation is all about. They are licking asses of westerner. Worshiping Pink Floyd and forgetting Ustad Zakir Hussain. Even if they show some affection to classical Indian music that too they are doing to mimic themselves Westerner. Some hot shot westerners find taste in our great heritage.
[3].
[3].
Gen X is weak and deserves some sympathy. These posers are simply a varnished version of west culture and are no way going to help the country. Like me, you may also get upset but can’t blame Gen-X completely. It’s not their fault because ‘they’ are nobody but ‘us’ only. Time is calling for 'Vyaktitva-Vikas' and 'Anushasan'. Time to at least do little googling of Yam, Niyam, Asana, Pranayam, Pratyahara, Dhayan, Dharna and Samadhi. Even if you ignore it after getting uiseful insight and continue living your way, the objectives met partially. At least, in your next gathering at any hanging point you will not be heard quoting, “Draupadi was wife of Ravana, was not she?
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Farewell Speech ....:)
Vienna is amongst the top five
best cities to live at. With 3 million inhabitants and thousands of
tourists Vienna no doubt is best place to call home. People do feel proud to be
connected to Vienna. They really should do.
Now, imagine a person fascinated
by all facts and figures got trapped in a gutter in Vienna …. That’s indeed a situation. Will you still call Vienna the Best Place?
Hmmm .....
If you are in a gutter you are
surely leading for deep shit. On way and during my struggle to get out of this
gutter I met plenty of other people trapped in same gutter.
Person 1, who eventually is the
boss of this gutter, believes that the world is nothing but a gutter so cherish
the fact that you are in an Austrian gutter. Indeed, he has been to best
gutters across the world and people do follow him. A group of other people believe that we are
getting paid so keep on doing what the person 1 says. There is also a set of
people who believes that outside this gutter there are more filthy gutters so
just celebrate your relative superiority. Other consoles others by saying that
no one else in your network knows that you are in gutter so keep the fact
hidden and load your facebook status ‘Enjoying Vienna’ posts... There are some characters
who hope that situation will change someday. And then … there are few rare people
who are convinced that a gutter is a gutter is a gutter. Real world is beyond
these gutters. They surely believe it as they still have unfazed memories of
fresh water lakes.
So what if a person tries to come out of
gutter.
Nothing … He tries and easily comes
out of the gutter. And Yes, after
smelling fresh air and thoroughly looking at surrounding he concludes that Vienna,
indeed, is a best place of world. Your trapping in a gutter and then coming out of it has to do nothing with beauty of Vienna. A gutter is a gutter is a gutter.
PS: Is it the way people write
their farewell?
Thursday, September 16, 2010
फ़रिश्ते कह रहे हैं आदमी से कुछ नहीं होता ...
[ भूमिका ]
निराशा बहुत भयानक चीज है और उतनी ही खतरनाक है आशा ! दोनों ही स्थितियों में हम धरातल छोड़ देते हैं और उड़ना हमने अब तक सीखा नहीं है ! कल्पना में खोकर उड़ने की कोशिश , फिर वही हताशा, कुंठा और संशय का दुष्चक्र ! ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी कल्पना ही खोखली हैं !
हम एक बहुत ही मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, ये दौर सनसनी का है ! सुनते-सुनते, पढ़ते -पढ़ते और यही सब देखते -देखते हम भी सनसनी के पुजारी हो गए हैं ! एक हल्की से चिंगारी मन में कौंधी और हम दुनिया में क्रान्ति लाने के सपने बुनने लगते हैं, सोच के धरातल में कुलांचे मारने लगते हैं ! कभी अगर निराशा का हल्का सा कुहासा नज़र आया तो मन मार बैठते हैं ! बहुत कुछ सोचने लगते हैं ! ये दौर शेख - चिल्लियों का है , जहां काम कम हो रहा है और दिमाग को कल्पना के बोझ से दबाया जा रहा है ! हम गुनगुनाना कब का भूल गए लेकिन गीत-संगीत की विवेचना ज़रूर कर रहे हैं !
[ प्रस्तावना ]
हम जो कर रहे हैं वो बिना सोचे समझे किये जा रहे हैं ! कूपमंडूकता के आक्षेप से बचने के लिए मत्स्यागर की मछली बनते जा रहे हैं , शीशे की दीवारों में क़ैद ! शीशे के आर-पार देख तो रहे हैं , दुनिया की खबर तो है , अंदाज़ा है कि दुनिया बहुत बड़ी है लेकिन कितने विवश हैं हम ... हम शीशे के जार में ही घूम रहे हैं, दुनिया की बात कर रहे हैं, निकलने का सोच भी नहीं रहे ... हमने अपने बंधन खुद बाँध लिए, अब क्रान्ति की कोई बात भी नहीं करता ! हम डरे हुए हैं ! बाहर गए तो कोई बड़ी मछली हमला न कर दे, बाहर गए तो फिश-फ़ूड कौन देगा हमे ! हम अपना कम्फर्ट ज़ोन छोड़ना ही नहीं चाहते , बस बात किये जा रहे हैं !और झूठे आदर्श पकडे हुए दौड़े जा रहे हैं अपने जार में - सीईओ बनेंगे, कार खरीदेंगे, घर खरीदेंगे ... प्रगती के जिन झूठे मानदंडों को आधार मानकर हम दौड़े जा रहे हैं ...लेकिन प्रगति बहुत खोखली है .. तुम्हे एक जार से उठाकर दुसरे बड़े जार में डाल देंगे, जहां पानी ज्यादा होगा, खाना ज्यदा होगा , मछलियाँ रंग-बिरंगी होंगी ..बस और कुछ नहीं !
शुरू में सब अच्चा लगेगा , तुम खुद को कामयाब मान बैठोगे एक पल के लिए, दोस्तों को महंगी पार्टी दे दोगे, नाचोगे, गाओगे और पुराने 'ज़ार' की पीड़ा को भूल जाओगे ! लेकिन अगले पल तुम्हे अहसास होगा कि तुम्हारी प्रगति खोखली है , ये रंग-बिरंगी मछलियाँ कितनी ही खुशनुमा क्यों न दिखाई दे लेकिन हकीकत में ये बीमार हैं ! और बीमारी भी ऐसी है कि ये बताना नहीं चाहते ! ये सिर्फ चमक दिखाकर तुम्हे भी अपने जैसा बनाना चाहते हैं ! ये थकी हुयी मछलियाँ है जिन्होंने कभी छोटे ज़ार में रफ़्तार दिखाकर ये प्रमोशन पाया था, ये रफ़्तार की बात अब भी करेंगे क्योंकि इनमे सच कहने का जज्बा अब रहा नहीं ! ये थके हैं, ये रफ़्तार की बात करेंगे, बड़े जार की बात करेंगे , तुम्हे थका देंगे !
तुम्हारे जीवन की जो उर्जा थी उसे कांच की दीवारों से टकरा-टकरा कर निचोड़ देंगे ! तुम कभी जान भी न पाओगे कि क्या था रहस्य, क्या था संगीत , क्या था सौंदर्य तुम्हारे जीवन का ! और जब कभी देर-सवेर तुम्हे इसका अहसास होगा तब बहुर देर हो चुकी होगी, तुम चाह के भी कुछ नहीं कर पाओगे ! फिर तुम भी इन के जैसे रफ़्तार की बात करोगे, बड़े जार की बात करोगे ! इतने मजबूर हो जाओगे कि हार मान बैठोगे, अपने बच्चों को तुम भी इसी तरह के ज़ार में बंद कर दोगे, उसे दौड़ा -दौड़ा के थका दोगे , इस उम्मीद में कि अगली पीढी को और बड़ा ज़ार मिल जाए ! हर कोई अपने ज़ार से पस्त है , हर किसी को लग रहा ही कि दुसरे ज़ार की मछली ज्यादा खुश है ! हम ज़िंदगी भर ज़ार की बात करते हैं, नदियों का, तालाबों का , समंदर का तो अब ज़िक्र भी नहीं होता ! दादा-दादी की कहानी कि तरह नदी, तालाब और समंदर 'रियल' लगते ही नहीं !
[ उपसंहार ]
गौर करना कभी, दौर ही ऐसा है ! तुम्हे एक पल की भी फुर्सत नहीं दी जा रही कि तुम कुछ और सोच पाओ, तुम सिर्फ वही सोच रहे हो जो ये चाहते हैं ... सेक्स, ग्लैमर, अय्याशी, मस्ती, बड़ी कार, बड़ा घर, बड़े सपने, बड़े जार, रंगीन मछलियाँ ! एक और बात, उकता सब गए हैं इस सिस्टम से लेकिन सब डरे हुए हैं, थके हुए हैं ! हताश है ! अब कुलाच मार के कौन बाहर आएगा ज़ार से, समंदर की तलाश कौन करेगा ! फायदा क्या ऐसी तेज़ रफ़्तार का कि हमेशा कांच की दीवारों से टकराते रहो !
शायद, मै इस भीड़ से अलग हूँ ! मेरे दादी की कहानी में जिस समंदर, जिस नदी का ज़िक्र बार -बार हुआ है मुझे उस पर भरोसा है ! मै तलाशूँगा अपने समंदर को !
निराशा बहुत भयानक चीज है और उतनी ही खतरनाक है आशा ! दोनों ही स्थितियों में हम धरातल छोड़ देते हैं और उड़ना हमने अब तक सीखा नहीं है ! कल्पना में खोकर उड़ने की कोशिश , फिर वही हताशा, कुंठा और संशय का दुष्चक्र ! ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी कल्पना ही खोखली हैं !
हम एक बहुत ही मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, ये दौर सनसनी का है ! सुनते-सुनते, पढ़ते -पढ़ते और यही सब देखते -देखते हम भी सनसनी के पुजारी हो गए हैं ! एक हल्की से चिंगारी मन में कौंधी और हम दुनिया में क्रान्ति लाने के सपने बुनने लगते हैं, सोच के धरातल में कुलांचे मारने लगते हैं ! कभी अगर निराशा का हल्का सा कुहासा नज़र आया तो मन मार बैठते हैं ! बहुत कुछ सोचने लगते हैं ! ये दौर शेख - चिल्लियों का है , जहां काम कम हो रहा है और दिमाग को कल्पना के बोझ से दबाया जा रहा है ! हम गुनगुनाना कब का भूल गए लेकिन गीत-संगीत की विवेचना ज़रूर कर रहे हैं !
[ प्रस्तावना ]
हम जो कर रहे हैं वो बिना सोचे समझे किये जा रहे हैं ! कूपमंडूकता के आक्षेप से बचने के लिए मत्स्यागर की मछली बनते जा रहे हैं , शीशे की दीवारों में क़ैद ! शीशे के आर-पार देख तो रहे हैं , दुनिया की खबर तो है , अंदाज़ा है कि दुनिया बहुत बड़ी है लेकिन कितने विवश हैं हम ... हम शीशे के जार में ही घूम रहे हैं, दुनिया की बात कर रहे हैं, निकलने का सोच भी नहीं रहे ... हमने अपने बंधन खुद बाँध लिए, अब क्रान्ति की कोई बात भी नहीं करता ! हम डरे हुए हैं ! बाहर गए तो कोई बड़ी मछली हमला न कर दे, बाहर गए तो फिश-फ़ूड कौन देगा हमे ! हम अपना कम्फर्ट ज़ोन छोड़ना ही नहीं चाहते , बस बात किये जा रहे हैं !और झूठे आदर्श पकडे हुए दौड़े जा रहे हैं अपने जार में - सीईओ बनेंगे, कार खरीदेंगे, घर खरीदेंगे ... प्रगती के जिन झूठे मानदंडों को आधार मानकर हम दौड़े जा रहे हैं ...लेकिन प्रगति बहुत खोखली है .. तुम्हे एक जार से उठाकर दुसरे बड़े जार में डाल देंगे, जहां पानी ज्यादा होगा, खाना ज्यदा होगा , मछलियाँ रंग-बिरंगी होंगी ..बस और कुछ नहीं !
शुरू में सब अच्चा लगेगा , तुम खुद को कामयाब मान बैठोगे एक पल के लिए, दोस्तों को महंगी पार्टी दे दोगे, नाचोगे, गाओगे और पुराने 'ज़ार' की पीड़ा को भूल जाओगे ! लेकिन अगले पल तुम्हे अहसास होगा कि तुम्हारी प्रगति खोखली है , ये रंग-बिरंगी मछलियाँ कितनी ही खुशनुमा क्यों न दिखाई दे लेकिन हकीकत में ये बीमार हैं ! और बीमारी भी ऐसी है कि ये बताना नहीं चाहते ! ये सिर्फ चमक दिखाकर तुम्हे भी अपने जैसा बनाना चाहते हैं ! ये थकी हुयी मछलियाँ है जिन्होंने कभी छोटे ज़ार में रफ़्तार दिखाकर ये प्रमोशन पाया था, ये रफ़्तार की बात अब भी करेंगे क्योंकि इनमे सच कहने का जज्बा अब रहा नहीं ! ये थके हैं, ये रफ़्तार की बात करेंगे, बड़े जार की बात करेंगे , तुम्हे थका देंगे !
तुम्हारे जीवन की जो उर्जा थी उसे कांच की दीवारों से टकरा-टकरा कर निचोड़ देंगे ! तुम कभी जान भी न पाओगे कि क्या था रहस्य, क्या था संगीत , क्या था सौंदर्य तुम्हारे जीवन का ! और जब कभी देर-सवेर तुम्हे इसका अहसास होगा तब बहुर देर हो चुकी होगी, तुम चाह के भी कुछ नहीं कर पाओगे ! फिर तुम भी इन के जैसे रफ़्तार की बात करोगे, बड़े जार की बात करोगे ! इतने मजबूर हो जाओगे कि हार मान बैठोगे, अपने बच्चों को तुम भी इसी तरह के ज़ार में बंद कर दोगे, उसे दौड़ा -दौड़ा के थका दोगे , इस उम्मीद में कि अगली पीढी को और बड़ा ज़ार मिल जाए ! हर कोई अपने ज़ार से पस्त है , हर किसी को लग रहा ही कि दुसरे ज़ार की मछली ज्यादा खुश है ! हम ज़िंदगी भर ज़ार की बात करते हैं, नदियों का, तालाबों का , समंदर का तो अब ज़िक्र भी नहीं होता ! दादा-दादी की कहानी कि तरह नदी, तालाब और समंदर 'रियल' लगते ही नहीं !
[ उपसंहार ]
गौर करना कभी, दौर ही ऐसा है ! तुम्हे एक पल की भी फुर्सत नहीं दी जा रही कि तुम कुछ और सोच पाओ, तुम सिर्फ वही सोच रहे हो जो ये चाहते हैं ... सेक्स, ग्लैमर, अय्याशी, मस्ती, बड़ी कार, बड़ा घर, बड़े सपने, बड़े जार, रंगीन मछलियाँ ! एक और बात, उकता सब गए हैं इस सिस्टम से लेकिन सब डरे हुए हैं, थके हुए हैं ! हताश है ! अब कुलाच मार के कौन बाहर आएगा ज़ार से, समंदर की तलाश कौन करेगा ! फायदा क्या ऐसी तेज़ रफ़्तार का कि हमेशा कांच की दीवारों से टकराते रहो !
शायद, मै इस भीड़ से अलग हूँ ! मेरे दादी की कहानी में जिस समंदर, जिस नदी का ज़िक्र बार -बार हुआ है मुझे उस पर भरोसा है ! मै तलाशूँगा अपने समंदर को !
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Thursday, August 26, 2010
|| शेख , अपनी-अपनी देख ||
[1].
एक जद्दोजहद छिड़ी है बरसों से , ज़िंदगी के मायने तलाशने की ! कभी कुछ नज़र आया तो कभी नज़र से सब कुछ ओझल सा हो गया ! कई बार तो ऐसा भी लगा कि सब कुछ एक सपने जैसा ही था , और जैसे ही इस सपने के सबसे खूबसूरत हिस्से पर पहुंचे ही थे कि आँख खुल गयी ! शिकायत फिर हुई! विश्लेषण ये हुआ कि क्या वाकई आँख खुलना आँख के खुलने जैसा था या फिर असली मायने सपने में ही मिलने वाले थे ! गड़बड़ शुरू ! अब आँख खोलें तो आफ़त और आँख मूँद के एक स्वप्न की रूपरेखा रचे तो आफ़त ! ऐसी स्थिति में हम अक्सर कोमा में चले जाया करते हैं ! जिंदा, विचारशील लेकिन स्थूल और गति-विहीन ! सोचिये ज़रा ! सार यही निकला कि मन में खूब सारे विचार आयें तो आफ़त और विचार-शून्य हो जाएँ तो आफ़त ! सवाल अब भी वहीं का वहीं , ' ज़िंदगी के मायने क्या हैं' ?
"मृतकों से पटी हुई भू है , पहचान कहाँ इसमें तू है !!"
तुम्हे लगता है कि तुम जिंदा हो ? तुम्हे लगता है कि सपूर्ण जीवन तुम धरा के ऐश्वर्य भोगने की चाह में बिता ही लोगे? अभी लेह में बादल फट गए, हज़ार आदमी तबाह हुए, पाकिस्तान में बाढ़ आयी, अमेरिका ने फिर कहीं बम गिराए, अफ्रीकन देशों में लाखों लोग गृहयुद्ध की वेदी पर चढ़ गए , किसी जेहादी ने अपने साथ और भी ज़िंदगियाँ विस्फोटित कर दी ! फिर भी तुम अमरत्व की आशा लिए जिए जा रहे हो ! सोचो ज़रा, कुछ मायने भी हैं ऐसी ज़िंदगी के ?
कुछ लोग ऐसे हालातों में जंगले चले जाते हैं, एकांत खोजते हैं , नदी , पहाड़ के सिरे पर जाकर ज़िंदगी के मायने तलाशते हैं !ज़िंदगी से दूर ज़िंदगी के मायने कोई कैसे तलाशेगा भला ? जो ज़िंदगियाँ आज मेरे पास दम तोड़ रही हैं और जो कल दम तोड़ देंगी , उनका क्या ? 'ज़िंदगी के मायने ' - पता नहीं किस विद्वान् ने कस दिया ये जुमला , बवाल-ए-जाँ बन गया !
शेख , अपनी-अपनी देख !
ये आसान जुमला है ! अपनी -अपनी देखो भाई ! यहाँ अब टाइम किसके पास है ये सब सुनने का , पढने का और अमल करने का , फिर तुम कौन से नारायण के अवतार आ गए ! आना है ही उन्हें, तब कि तब देखेंगे ! तब तक अपनी-अपनी देख ! गलत नहीं हैं ऐसे लोग ! थक चुके हैं ये ऐसी बातें सुन सुनकर ! लेकिन शेख साहब , जुमला थोडा मज़ाक तो लगता है ! अपनी ज़िंदगी कोई अपनी अकेले कि थोड़े है यार ! सोचो, सबसे बड़ा हिस्सा ज़िंदगी का हम जाया कर देते हैं ज़िंदगी को दूसरे के हिसाब से जीने में ! फरमाइश पूरी करते करते अलविदा हो जाते हैं दुनिया -जहां से , शायद कुछ ही मौके आये थे जब ज़िंदगी अपने हिसाब से जी थी !
' ज़िंदगी में ज़िंदगी सचमुच है कितने फीसदी' !
शायद पूरी ज़िंदगी निकल जाए तलाश करते करते और उम्र के आखिरी मुहाने पर जब मौत दस्तक देने वाली हो तो जा के पता चले कि There is No Secret Ingredient".लेकिन सफ़र का अपना अलग ही मज़ा है | गुज़ारिश यही है कि आँख मूँद के सवाल अनदेखा न किया जाए ! बिना मायने कि ज़िंदगी भी भला कोई ज़िंदगी हुयी ? सवाल अब भी जिंदा है !!
[2].
ज़माना एयर-कंडीशंड घर और टोटली कंडीशंड इंसानों का है ! शत-प्रतिशत साक्षरता का ! तुम सब जानते हो कि साक्षरता के नाम पर कितना कंडीशंड हुए हैं हम सब , और नहीं जानते तो सोचो एक मिनट ! अब भी नहीं जाँ पाए तो सुन लो, साक्षर होकर हम सिर्फ दलाल बने हैं, अपना नया और सृजित कुछ नहीं, कमीशन खोरी कर रहे हैं और कमीशन खोरों कि ज़मात दर ज़मात पैदा कर रहे हैं ! समझे कि नहीं समझे ?
मीडिया दलाली करती है, प्रेस दलाल हैं, हमारा कोर्स मैटेरिअल भी दलाली का नतीजा है ! लिक्खाड़ पैदा हो गए गली -गली, लिखवा लो कुछ भी अंट-शंट ! कुछ नहीं तो बरसों की मान्याताओं को ही जुठला देंगे ये, opinion -making का काम अब टीवी और newspaper कर रहे हैं ! सनसनी सब कुछ है आज के ज़माने में ! सामने वाले का response आना चाहिए बॉस.. चाहे ' wow' हो या 'ohh', बस अपना काम हो गया ! अपनी दलाली पक्की है !
एक affirmative sentence को negative sentence बनाना व्याकरण का आसान सा काम है, कोई भी कर सकता है ! यहाँ लिक्खाडों की फौज तैयार है सा'ब ! दिमाग जिसे चलाना है चलाये हमने अपना काम कर दिया ! नाम , शोहरत , रुतबा, पैसा सब मिल रहा है !
एक ढर्रा चल पढ़ा, हरामखोरी की मिसाल दर मिसाल दर्ज हो रही है , एक ज़माने में 'आज-तक' को मसालेदार commercial न्यूज़ चैनल कहते थे तो आज इंडिया टीवी नयी मिसाल के साथ market में आ गया ! कल कोई नया आ जाएगा !
बचपन में एक मास्टर ने पढाया था कि एक प्रधान-मंत्री हुआ हमारे देश में जो कि एक ज़माने में रेल-मंत्री था ! एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गयी और उन्होंने नैतिक आधार पर ज़िम्मेदारी लेकर त्याग-पत्र दे दिया ! नैतिकता अब बची कहाँ ! ज़माना लालू प्रसाद और ममता बनर्जी का है ! नैतिकता का नाम लेंगे तो कॉमेडी हो जायेगी ! नैतिकता बची कहाँ !
और अगर बची भी हो तो चाहिए किसे ?
अब इन हालात में अगर एक आम आदमी अपने बच्चों को सदाचार का पाठ पढाये और रामायण- महाभारत की कहानी सुनाये तो बेवकूफी सी लगती हैं ! सफलता के जो आधुनिक मान-दंड हैं उनमे ये सब कुछ नहीं चाहिए !
थोडा डर तो लगता ही है ये सब देख कर , है कि नहीं ? हम ये चाहते हैं कि जब हम विपत्ति में फंसे हो तो सामने मदद करने ऐसा ही परोपकारी और सदाचारी मानव निस्वार्थ भाव से हमारे मदद को आये और दूसरी तरफ हम आला दर्जे के हरामी बनते जा रहे हैं !
अब शायद कुछ sense बन रहा होगा मेरे इस राग का ! पता नहीं कब ये रास्ता अख्तियार कर लिया हमारे जीने के तरीके ने !
[3].
नयी पीढी तेज़ है, दिमाग शातिर है , उर्जा और आत्म-विश्वास कूट कूट के भरा है ! इनके पास short-cuts और छोटे shorts-cuts दोनों है, ये तेज़ भागते हैं, दौड़ते हैं ! ये तेज़ दौड़ भी रहे हैं , लेकिन, हेल्लो ! जाना कहाँ है भाईसाहब? कुछ नहीं पता , यही हकीकत है ! हाय-बाय वाले लौंडे पैदा हो रहे हैं , Dude बनने के चक्कर में झूठे और मक्कार होते जा रहे हैं ! और अब ये आलम है की इस ज़मात में बहुत सारे लोग शामिल हो गए अब , ऐसे लोग जो की टीवी के सामने भी सफ़ेद झूठ बोल जाते हैं ! कोढ़ में खाज ये हैं कि इनके पास मीठे अल्फाज हैं और खुद को present करने का एक तरीका भी ! ऐसे लोग Spltizvilla और emotional Atyachar जैसे serials में youth -model बन के आ जाते हैं ! गाँव के लौंडे एकदम पागल हो गए और लड़कियाँ तो मालिक पूछो मत ! Posers पैदा हो रहे हैं ! पहले एक-दो होते थे अब घर -घर पैदा हो रहे हैं ! Posers ! खुद को काबिल दिखने और कुछ करने कि चाह में अजीब हो गए हैं ये ! जल्दबाज़ !
होता ये है कि यही Posers भाईसाहब और बहिन जी जब trek करने जाते हैं तो एक दम धाँसू trek -gears में ..Nike aur Addidas वाले gears .. उसपे टोपी, चश्मा , sunscreen, moisturiser सब कुछ original और महँगा वाला ! वैसे AC कार लेना पसंद करेंगे लेकिन मजबूरी में मुंह बनाते हुए ST बस भी ले लेंगे, base पर पहुंचे , guide लिया और पीछे -पीछे हज़ार ड्रामे करके टॉप पर भी पहुँच गए ! झंडा लगा दिया, विचित्र मुद्रा में फोटोग्राफ्स भी ले लिए और facebook में upload भी कर दिए ... सैकड़ों चिलंटू तैयार है comments को ... wow, Dude ...this is superb, I never knew u r such a superb trekker... फिर इनके कमेन्ट , man ! it was really difficult, my life was on stake ! चलो, trek हो गयी, कमेंट्स भी पा लिए लेकिन सवाल अब भी वही ... बॉस, इंसान कहाँ बना ?
एक ज्ञानी अँगरेज़ हुआ है जो खुद भी बेमिसाल trekker था , उसने कहा था , “Mountains are the means, the man is the end. The goal is not to reach the tops of mountains, but to improve the man.” (Walter Bonatti, Italian Mountaineer )
इंसान बना ही नहीं, improvements की बात बेमानी है ! सिर्फ एक नंबर बढ़ा इनकी 'no's of treks' में |अब ये ट्रेंड बन गया है ! numbers ही सब कुछ हो गए अब ! तुमने २० trek की मैंने ६० सो मै Superior हो गया ! 'quality of trek' जैसी कोई चीज ही नहीं होती ! या यूं कहे quality जैसी चीज के कोई मायने ही नहीं रहे अब ! quality is subjective often ! जो कुछ भी सब्जेक्टिव है उसने अपना मूल्य खो दिया ! संस्कार, पौरुष, धर्म और आचरण सब कुछ अस्तित्व-विहीन हो गया Posers की इस दुनिया में ! numbers बताओ बॉस numbers ! बैंक बैलेंस, cars, फ्लेट्स, LED's measurement, per Sq feet cost of Flooring tiles ..numbers यहीं है ...कामयाबी का असली मानदंड भी यही है !
...............................
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वैसे मै कोई दूध का धुला नहीं हूँ, मै खुद से भी उतना नाराज़ हूँ जितना की बाकी लोगों से !!
बस, बाकी गुस्सा अगली बार !!
एक जद्दोजहद छिड़ी है बरसों से , ज़िंदगी के मायने तलाशने की ! कभी कुछ नज़र आया तो कभी नज़र से सब कुछ ओझल सा हो गया ! कई बार तो ऐसा भी लगा कि सब कुछ एक सपने जैसा ही था , और जैसे ही इस सपने के सबसे खूबसूरत हिस्से पर पहुंचे ही थे कि आँख खुल गयी ! शिकायत फिर हुई! विश्लेषण ये हुआ कि क्या वाकई आँख खुलना आँख के खुलने जैसा था या फिर असली मायने सपने में ही मिलने वाले थे ! गड़बड़ शुरू ! अब आँख खोलें तो आफ़त और आँख मूँद के एक स्वप्न की रूपरेखा रचे तो आफ़त ! ऐसी स्थिति में हम अक्सर कोमा में चले जाया करते हैं ! जिंदा, विचारशील लेकिन स्थूल और गति-विहीन ! सोचिये ज़रा ! सार यही निकला कि मन में खूब सारे विचार आयें तो आफ़त और विचार-शून्य हो जाएँ तो आफ़त ! सवाल अब भी वहीं का वहीं , ' ज़िंदगी के मायने क्या हैं' ?
"मृतकों से पटी हुई भू है , पहचान कहाँ इसमें तू है !!"
तुम्हे लगता है कि तुम जिंदा हो ? तुम्हे लगता है कि सपूर्ण जीवन तुम धरा के ऐश्वर्य भोगने की चाह में बिता ही लोगे? अभी लेह में बादल फट गए, हज़ार आदमी तबाह हुए, पाकिस्तान में बाढ़ आयी, अमेरिका ने फिर कहीं बम गिराए, अफ्रीकन देशों में लाखों लोग गृहयुद्ध की वेदी पर चढ़ गए , किसी जेहादी ने अपने साथ और भी ज़िंदगियाँ विस्फोटित कर दी ! फिर भी तुम अमरत्व की आशा लिए जिए जा रहे हो ! सोचो ज़रा, कुछ मायने भी हैं ऐसी ज़िंदगी के ?
कुछ लोग ऐसे हालातों में जंगले चले जाते हैं, एकांत खोजते हैं , नदी , पहाड़ के सिरे पर जाकर ज़िंदगी के मायने तलाशते हैं !ज़िंदगी से दूर ज़िंदगी के मायने कोई कैसे तलाशेगा भला ? जो ज़िंदगियाँ आज मेरे पास दम तोड़ रही हैं और जो कल दम तोड़ देंगी , उनका क्या ? 'ज़िंदगी के मायने ' - पता नहीं किस विद्वान् ने कस दिया ये जुमला , बवाल-ए-जाँ बन गया !
शेख , अपनी-अपनी देख !
ये आसान जुमला है ! अपनी -अपनी देखो भाई ! यहाँ अब टाइम किसके पास है ये सब सुनने का , पढने का और अमल करने का , फिर तुम कौन से नारायण के अवतार आ गए ! आना है ही उन्हें, तब कि तब देखेंगे ! तब तक अपनी-अपनी देख ! गलत नहीं हैं ऐसे लोग ! थक चुके हैं ये ऐसी बातें सुन सुनकर ! लेकिन शेख साहब , जुमला थोडा मज़ाक तो लगता है ! अपनी ज़िंदगी कोई अपनी अकेले कि थोड़े है यार ! सोचो, सबसे बड़ा हिस्सा ज़िंदगी का हम जाया कर देते हैं ज़िंदगी को दूसरे के हिसाब से जीने में ! फरमाइश पूरी करते करते अलविदा हो जाते हैं दुनिया -जहां से , शायद कुछ ही मौके आये थे जब ज़िंदगी अपने हिसाब से जी थी !
' ज़िंदगी में ज़िंदगी सचमुच है कितने फीसदी' !
शायद पूरी ज़िंदगी निकल जाए तलाश करते करते और उम्र के आखिरी मुहाने पर जब मौत दस्तक देने वाली हो तो जा के पता चले कि There is No Secret Ingredient".लेकिन सफ़र का अपना अलग ही मज़ा है | गुज़ारिश यही है कि आँख मूँद के सवाल अनदेखा न किया जाए ! बिना मायने कि ज़िंदगी भी भला कोई ज़िंदगी हुयी ? सवाल अब भी जिंदा है !!
[2].
ज़माना एयर-कंडीशंड घर और टोटली कंडीशंड इंसानों का है ! शत-प्रतिशत साक्षरता का ! तुम सब जानते हो कि साक्षरता के नाम पर कितना कंडीशंड हुए हैं हम सब , और नहीं जानते तो सोचो एक मिनट ! अब भी नहीं जाँ पाए तो सुन लो, साक्षर होकर हम सिर्फ दलाल बने हैं, अपना नया और सृजित कुछ नहीं, कमीशन खोरी कर रहे हैं और कमीशन खोरों कि ज़मात दर ज़मात पैदा कर रहे हैं ! समझे कि नहीं समझे ?
मीडिया दलाली करती है, प्रेस दलाल हैं, हमारा कोर्स मैटेरिअल भी दलाली का नतीजा है ! लिक्खाड़ पैदा हो गए गली -गली, लिखवा लो कुछ भी अंट-शंट ! कुछ नहीं तो बरसों की मान्याताओं को ही जुठला देंगे ये, opinion -making का काम अब टीवी और newspaper कर रहे हैं ! सनसनी सब कुछ है आज के ज़माने में ! सामने वाले का response आना चाहिए बॉस.. चाहे ' wow' हो या 'ohh', बस अपना काम हो गया ! अपनी दलाली पक्की है !
एक affirmative sentence को negative sentence बनाना व्याकरण का आसान सा काम है, कोई भी कर सकता है ! यहाँ लिक्खाडों की फौज तैयार है सा'ब ! दिमाग जिसे चलाना है चलाये हमने अपना काम कर दिया ! नाम , शोहरत , रुतबा, पैसा सब मिल रहा है !
एक ढर्रा चल पढ़ा, हरामखोरी की मिसाल दर मिसाल दर्ज हो रही है , एक ज़माने में 'आज-तक' को मसालेदार commercial न्यूज़ चैनल कहते थे तो आज इंडिया टीवी नयी मिसाल के साथ market में आ गया ! कल कोई नया आ जाएगा !
बचपन में एक मास्टर ने पढाया था कि एक प्रधान-मंत्री हुआ हमारे देश में जो कि एक ज़माने में रेल-मंत्री था ! एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गयी और उन्होंने नैतिक आधार पर ज़िम्मेदारी लेकर त्याग-पत्र दे दिया ! नैतिकता अब बची कहाँ ! ज़माना लालू प्रसाद और ममता बनर्जी का है ! नैतिकता का नाम लेंगे तो कॉमेडी हो जायेगी ! नैतिकता बची कहाँ !
और अगर बची भी हो तो चाहिए किसे ?
अब इन हालात में अगर एक आम आदमी अपने बच्चों को सदाचार का पाठ पढाये और रामायण- महाभारत की कहानी सुनाये तो बेवकूफी सी लगती हैं ! सफलता के जो आधुनिक मान-दंड हैं उनमे ये सब कुछ नहीं चाहिए !
थोडा डर तो लगता ही है ये सब देख कर , है कि नहीं ? हम ये चाहते हैं कि जब हम विपत्ति में फंसे हो तो सामने मदद करने ऐसा ही परोपकारी और सदाचारी मानव निस्वार्थ भाव से हमारे मदद को आये और दूसरी तरफ हम आला दर्जे के हरामी बनते जा रहे हैं !
अब शायद कुछ sense बन रहा होगा मेरे इस राग का ! पता नहीं कब ये रास्ता अख्तियार कर लिया हमारे जीने के तरीके ने !
[3].
नयी पीढी तेज़ है, दिमाग शातिर है , उर्जा और आत्म-विश्वास कूट कूट के भरा है ! इनके पास short-cuts और छोटे shorts-cuts दोनों है, ये तेज़ भागते हैं, दौड़ते हैं ! ये तेज़ दौड़ भी रहे हैं , लेकिन, हेल्लो ! जाना कहाँ है भाईसाहब? कुछ नहीं पता , यही हकीकत है ! हाय-बाय वाले लौंडे पैदा हो रहे हैं , Dude बनने के चक्कर में झूठे और मक्कार होते जा रहे हैं ! और अब ये आलम है की इस ज़मात में बहुत सारे लोग शामिल हो गए अब , ऐसे लोग जो की टीवी के सामने भी सफ़ेद झूठ बोल जाते हैं ! कोढ़ में खाज ये हैं कि इनके पास मीठे अल्फाज हैं और खुद को present करने का एक तरीका भी ! ऐसे लोग Spltizvilla और emotional Atyachar जैसे serials में youth -model बन के आ जाते हैं ! गाँव के लौंडे एकदम पागल हो गए और लड़कियाँ तो मालिक पूछो मत ! Posers पैदा हो रहे हैं ! पहले एक-दो होते थे अब घर -घर पैदा हो रहे हैं ! Posers ! खुद को काबिल दिखने और कुछ करने कि चाह में अजीब हो गए हैं ये ! जल्दबाज़ !
होता ये है कि यही Posers भाईसाहब और बहिन जी जब trek करने जाते हैं तो एक दम धाँसू trek -gears में ..Nike aur Addidas वाले gears .. उसपे टोपी, चश्मा , sunscreen, moisturiser सब कुछ original और महँगा वाला ! वैसे AC कार लेना पसंद करेंगे लेकिन मजबूरी में मुंह बनाते हुए ST बस भी ले लेंगे, base पर पहुंचे , guide लिया और पीछे -पीछे हज़ार ड्रामे करके टॉप पर भी पहुँच गए ! झंडा लगा दिया, विचित्र मुद्रा में फोटोग्राफ्स भी ले लिए और facebook में upload भी कर दिए ... सैकड़ों चिलंटू तैयार है comments को ... wow, Dude ...this is superb, I never knew u r such a superb trekker... फिर इनके कमेन्ट , man ! it was really difficult, my life was on stake ! चलो, trek हो गयी, कमेंट्स भी पा लिए लेकिन सवाल अब भी वही ... बॉस, इंसान कहाँ बना ?
एक ज्ञानी अँगरेज़ हुआ है जो खुद भी बेमिसाल trekker था , उसने कहा था , “Mountains are the means, the man is the end. The goal is not to reach the tops of mountains, but to improve the man.” (Walter Bonatti, Italian Mountaineer )
इंसान बना ही नहीं, improvements की बात बेमानी है ! सिर्फ एक नंबर बढ़ा इनकी 'no's of treks' में |अब ये ट्रेंड बन गया है ! numbers ही सब कुछ हो गए अब ! तुमने २० trek की मैंने ६० सो मै Superior हो गया ! 'quality of trek' जैसी कोई चीज ही नहीं होती ! या यूं कहे quality जैसी चीज के कोई मायने ही नहीं रहे अब ! quality is subjective often ! जो कुछ भी सब्जेक्टिव है उसने अपना मूल्य खो दिया ! संस्कार, पौरुष, धर्म और आचरण सब कुछ अस्तित्व-विहीन हो गया Posers की इस दुनिया में ! numbers बताओ बॉस numbers ! बैंक बैलेंस, cars, फ्लेट्स, LED's measurement, per Sq feet cost of Flooring tiles ..numbers यहीं है ...कामयाबी का असली मानदंड भी यही है !
...............................
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वैसे मै कोई दूध का धुला नहीं हूँ, मै खुद से भी उतना नाराज़ हूँ जितना की बाकी लोगों से !!
बस, बाकी गुस्सा अगली बार !!
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Wednesday, January 13, 2010
बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा !!
पहला प्रसंग !!
बचपन की कहानी है , तब सुनी थी तो हँस दिए थे , अब जो फिर से याद आयी तो फिर से हँस दिये ! लेकिन दोनों हँसी में कितना फरक !! कहानी पहले कह लेते हैं , बाद की बात बाद में !!
" तोते बड़े परेशान थे बहेलियों से ! एक बाबा के पास गए, दुखड़ा सुनाया ! बाबा ने मंत्र दे दिया कि इसे रटते रहो , कोई बाल न बाँका कर पायेगा !! और महामंत्र क्या था : -
" बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा , दाना डालेगा , हमे बुलाएगा, हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे ! "
बड़े खुश हुए तोते !! शाख पर बैठे और chanting शुरू !!
बहेलिये आये , ध्यान से सुना तो माथे पर बल पड़ गये रे कि तोते तो ज्ञानी हो गये, अब न फंसेगा कोई !!! मन मर गया बहेलियों का, न जाल डाला न दाना फेंका, घर लौट गये !
यही चला कई दिन , फिर एक दिन बहेलिये ने जाल बिछा ही दिया , बैठा रहा इंतज़ार में ...तोते गाये जा रहे थे , दाने देखे तो बढ़ चले जाल कि तरफ ... लेकिन महामंत्र की chanting बराबर चल रही है ..
" बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा , दाना डालेगा , हमे बुलाएगा, हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे ! "
अंततः जाल में बैठ गये और दाने खाने लगे , लेकिन मज़े की बात chanting बंद न हुयी .... बहेलिया आया, जाल समेटा , बाज़ार चल दिया लेकिन तोतों की भी बात, chanting और जोर से चालू !!!
इस बार हमेशा से ज्यादा तोते फँसे थे , वो तोते जो consious थे , वो तोते जो chanting भी कर रहे थे !!
हँसी पहले आती थी तोतों की बेवकूफी पर और अब आती है ऐसे तोतों को देखकर !!!
दूसरा वाक़या !
अल्हड अलमस्त मै एक प्रवचन में चला गया ऐसे ही ! प्रवचन सुना, सवाल जागे तो पूछे ! जवाब अजीब से , कुछ किताबों के नाम लिए, कुछ तथाकथित महान लोगों के नाम लिए और उनकी बाते पढ़ डाली !! हमारे गुरु जी ने कहा है , इस किताब में लिखा है , इसलिए ये ऐसा है ! एक और किताब है हमारे गुरु जी के गुरु जी की उसमे ये लिखा है कि ये किताब सीधे जगत्पिता ब्रह्मा जी से ही आयी है इसलिए इसका पालन तो होना ही चाहिए !!
कमाल है !!
मैंने सवाल तो बड़े सरल तरीके से पूछे और जवाब ऐसे टेढ़े-मेड़े !! गुरुओं की, किताबों की फौज खडी कर दी और जवाब नदारद ! और हद ये की मुस्करा कर बाबा जी अंग्रेजी में पूछते हैं की मुझे मेरा जवाब मिला कि नही !! गुरु जी की किताबे पढो, सारे जवाब मिल जायेगे !! मैंने पुछा भाई क्यों पढूँ तुम्हारे गुरु जी की किताबे, जवाब आया की बीमार को दवा की ज़रुरत होती है इसलिए !!
बीमार ??? मै ??? और बीमारी कौन सी ?
इलाज क्या ? डॉक्टर कौन ? दवाई क्या ??
मुझे परम श्रद्धेय बाबा आदिल शाह बंगाली, बाबा राजभारती , टल्ली बाबा और हकीम सुलेमानी याद आ गये !!! गुरु जी के विस्तृत कुल-वृक्ष की कई शाख़ों की तरह !!
मुद्दे की बात !
कोठे बंद हुए तो और कुछ दुकाने सजने लगी , दलालों को काम मिल गया और धरम की दुकानों की तो रेलमपेल हो गयी !! बाबाओं के ब्रांड बन गए ... और मार्केट इतना हॉट की साहब कल नया ब्रांड लौंच कर दो तो दसियों हज़ार भक्त तैयार बैठे !! मेरा भारत आध्यात्मिक देश तो ठहरा !! सच्चे साधु-संत पलायन कर गए और उनके आश्रम कब कारोबारी कोठों में तब्दील हुए पता ही न चला !!
धंधा सब का इक जैसा ... कॉम्पटीशन वाली लाइन सो सोलुशन अलग -अलग नाम से अलग -अलग रैपर में मिल जायेंगे ... गोरा करने की क्रीम की तरह तो बाल घने -मुलायम-रेशमी और डैंड्रफ -फ्री करने वाले शम्पू की तरह !!! कोई राम को बेच रहा है, कोई कृष्ण के नाम की खा रहा है, कोई गुमनाम से देवी-देवताओं की फिर से अवतरित कर रहा है -रीमिक्स गानों की तरह .. तो बहुत सारे ऐसे भी हैं की इस झंझट से एकदम अलग ... स्वयंभू भगवान , खुद को भगवान घोषित कर दिया !! ३३ करोड़ तो पहले से ही थे , कुछ हज़ार बढ़ गए तो क्या फरक होगा !
कोठे हैं, दलाल हैं, रंडियाँ है और इन सबके बीच तुम ..... चमत्कारों की आस में फँसा एक आम भारतीय ! महामंत्र चाहिए तुम्हे भी !! और जल्दी में तो तुम हो ही !! और डरे भी ! कलयुग में पैदा हुए हो और आने वाला वक़्त घोर कलयुग का है !!
महा-मूरखता में जकडे , जगद्गुरु का झूठा दंभ भरे, भविष्य को लेकर सहमे और डरे , अर्ध-विक्षिप्त और असंतुष्ट : - दलालों के लिए सबसे आसान टार्गेट !!
सलाह कुछ नयी नहीं .... आँखें खोलो, अपने सत्य को खुद पहचानो , तलाशो !!
बचपन की कहानी है , तब सुनी थी तो हँस दिए थे , अब जो फिर से याद आयी तो फिर से हँस दिये ! लेकिन दोनों हँसी में कितना फरक !! कहानी पहले कह लेते हैं , बाद की बात बाद में !!
" तोते बड़े परेशान थे बहेलियों से ! एक बाबा के पास गए, दुखड़ा सुनाया ! बाबा ने मंत्र दे दिया कि इसे रटते रहो , कोई बाल न बाँका कर पायेगा !! और महामंत्र क्या था : -
" बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा , दाना डालेगा , हमे बुलाएगा, हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे ! "
बड़े खुश हुए तोते !! शाख पर बैठे और chanting शुरू !!
बहेलिये आये , ध्यान से सुना तो माथे पर बल पड़ गये रे कि तोते तो ज्ञानी हो गये, अब न फंसेगा कोई !!! मन मर गया बहेलियों का, न जाल डाला न दाना फेंका, घर लौट गये !
यही चला कई दिन , फिर एक दिन बहेलिये ने जाल बिछा ही दिया , बैठा रहा इंतज़ार में ...तोते गाये जा रहे थे , दाने देखे तो बढ़ चले जाल कि तरफ ... लेकिन महामंत्र की chanting बराबर चल रही है ..
" बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा , दाना डालेगा , हमे बुलाएगा, हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे ! "
अंततः जाल में बैठ गये और दाने खाने लगे , लेकिन मज़े की बात chanting बंद न हुयी .... बहेलिया आया, जाल समेटा , बाज़ार चल दिया लेकिन तोतों की भी बात, chanting और जोर से चालू !!!
इस बार हमेशा से ज्यादा तोते फँसे थे , वो तोते जो consious थे , वो तोते जो chanting भी कर रहे थे !!
हँसी पहले आती थी तोतों की बेवकूफी पर और अब आती है ऐसे तोतों को देखकर !!!
दूसरा वाक़या !
अल्हड अलमस्त मै एक प्रवचन में चला गया ऐसे ही ! प्रवचन सुना, सवाल जागे तो पूछे ! जवाब अजीब से , कुछ किताबों के नाम लिए, कुछ तथाकथित महान लोगों के नाम लिए और उनकी बाते पढ़ डाली !! हमारे गुरु जी ने कहा है , इस किताब में लिखा है , इसलिए ये ऐसा है ! एक और किताब है हमारे गुरु जी के गुरु जी की उसमे ये लिखा है कि ये किताब सीधे जगत्पिता ब्रह्मा जी से ही आयी है इसलिए इसका पालन तो होना ही चाहिए !!
कमाल है !!
मैंने सवाल तो बड़े सरल तरीके से पूछे और जवाब ऐसे टेढ़े-मेड़े !! गुरुओं की, किताबों की फौज खडी कर दी और जवाब नदारद ! और हद ये की मुस्करा कर बाबा जी अंग्रेजी में पूछते हैं की मुझे मेरा जवाब मिला कि नही !! गुरु जी की किताबे पढो, सारे जवाब मिल जायेगे !! मैंने पुछा भाई क्यों पढूँ तुम्हारे गुरु जी की किताबे, जवाब आया की बीमार को दवा की ज़रुरत होती है इसलिए !!
बीमार ??? मै ??? और बीमारी कौन सी ?
इलाज क्या ? डॉक्टर कौन ? दवाई क्या ??
मुझे परम श्रद्धेय बाबा आदिल शाह बंगाली, बाबा राजभारती , टल्ली बाबा और हकीम सुलेमानी याद आ गये !!! गुरु जी के विस्तृत कुल-वृक्ष की कई शाख़ों की तरह !!
मुद्दे की बात !
कोठे बंद हुए तो और कुछ दुकाने सजने लगी , दलालों को काम मिल गया और धरम की दुकानों की तो रेलमपेल हो गयी !! बाबाओं के ब्रांड बन गए ... और मार्केट इतना हॉट की साहब कल नया ब्रांड लौंच कर दो तो दसियों हज़ार भक्त तैयार बैठे !! मेरा भारत आध्यात्मिक देश तो ठहरा !! सच्चे साधु-संत पलायन कर गए और उनके आश्रम कब कारोबारी कोठों में तब्दील हुए पता ही न चला !!
धंधा सब का इक जैसा ... कॉम्पटीशन वाली लाइन सो सोलुशन अलग -अलग नाम से अलग -अलग रैपर में मिल जायेंगे ... गोरा करने की क्रीम की तरह तो बाल घने -मुलायम-रेशमी और डैंड्रफ -फ्री करने वाले शम्पू की तरह !!! कोई राम को बेच रहा है, कोई कृष्ण के नाम की खा रहा है, कोई गुमनाम से देवी-देवताओं की फिर से अवतरित कर रहा है -रीमिक्स गानों की तरह .. तो बहुत सारे ऐसे भी हैं की इस झंझट से एकदम अलग ... स्वयंभू भगवान , खुद को भगवान घोषित कर दिया !! ३३ करोड़ तो पहले से ही थे , कुछ हज़ार बढ़ गए तो क्या फरक होगा !
कोठे हैं, दलाल हैं, रंडियाँ है और इन सबके बीच तुम ..... चमत्कारों की आस में फँसा एक आम भारतीय ! महामंत्र चाहिए तुम्हे भी !! और जल्दी में तो तुम हो ही !! और डरे भी ! कलयुग में पैदा हुए हो और आने वाला वक़्त घोर कलयुग का है !!
महा-मूरखता में जकडे , जगद्गुरु का झूठा दंभ भरे, भविष्य को लेकर सहमे और डरे , अर्ध-विक्षिप्त और असंतुष्ट : - दलालों के लिए सबसे आसान टार्गेट !!
सलाह कुछ नयी नहीं .... आँखें खोलो, अपने सत्य को खुद पहचानो , तलाशो !!
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